Wednesday, August 20, 2008

इष्टोपदेश गाथा ८ ( अगस्त १७, २००८ )

यद्यपि शरीर, घर, धन, स्त्री, पुत्र आदि सब अन्य स्वाभाव को लिए आत्मा से भिन्न हैं , परन्तु मोहनीय कर्म के जाल में फंसकर जीव इन्हे आत्मा के समान मानता है शरीर का सम्बन्ध निकट है द्रव्य कर्म का भी निकट सम्बन्ध है पहले अपने से भिन्न पदार्थ को भिन्न समझना - घर , कार , पुत्र अत्यन्त भिन्नता लिए हुए
यह जीव चारित्र मोहनीय रूपी शराब के वश में इन सबको अपना मान बैठता है मिथ्या द्रष्टि जीव परमार्थ से अपना मानता है और सम्यक द्रष्टि व्यवहार से अपना मानता है और परमार्थ से यह सब निमित नैमितिक सम्बन्ध रूप मानता है
द्रव्य में अनंत गुण व पर्याय है वास्तु स्वरुप से यह अपने ज्ञान में बैठना चाहिए दो द्रव्य पास में रहने से एकसे या एक दुसरे के नहीं होते
कर्म रूप पुदगल का भी कोई सम्बन्ध नहीं रहा जाता सिर्फ़ जब तक सम्बन्ध रहता है तब तक संसार अवस्था बनी रहती है जब हरीर ही अपना नहीं तो शरीर से उत्पन्न हुआ अपना कैसे हो सकता है लेकिन क्योंकि इनसे अपना उपकार रूप भासित होता है उसे हम अपना कहते हैं परन्तु शरीर से उत्पन्न हुआ मल हमारा प्रयोजन सिद्ध नहीं होने से अपन ममत्व नहीं करते यथार्थ से पत्नि का जीव और शरीर दोनों अलग हैं इसी प्रकार घर, धन आदि भी न्यारे हैं जैसे दूध और पानी अलग हैं यह अपने ज्ञान में है सो अग्नि पर रख कर अलग करते हैं
मेरी चीज होगी वह कभी जुदा नहीं होगी ऐसा ज्ञानी पुरूष जानते हैं मोही पुरूष ऐसा नहीं मानता जो जैसा है उसे वैसा नहीं मानना मोहनीय कर्म है व्यहार से शरीर को अपना कहते हैं क्योंकि आत्मा का उससे एक अवगाह सम्बन्ध है स्त्री, पुत्रस आदि का संयोग से सम्बन्ध होने से हम इन्हे अपना कहते हैं यथार्थ में हम जानते हैं की ये सब भिन्न हैं इसी प्रकार घर, गाडी आदि का भी संयोगवश सम्बन्ध होने से इन्हे मोहवश अपना कहते हैं जैसे कोई व्यक्ति शराब नहीं पिया हो तो पत्नि को पत्नि और माता को माता कहता है और शराब पीने पर कुछ का कुछ कहता है इसी प्रकार मोह रुपी शराब के नशे में जीव सब को अपना मानता है इन सब से अपने प्रति प्रथक नहीं होने देना चारित्र मोहनीय का कार्य है इनको प्रथक देखने के लिए दर्शन मोहनीय का त्याग करना होगा मूढ़ प्राणी मिली चीज को एकसा मानता है , जो उसको अलग जानता है वो ज्ञानी कहा जाता है जैसे हंस जो की दूध में से पानी को अलग कर देता है उसे ज्ञानी कहा जता है इसके लिए हमें दर्शन मोहनीय का त्याग करना होगा

Saturday, August 16, 2008

Ishtopdesh Ji - Notes from Pravachan 12 - August 10, 2008

Ishtopdesh Ji - Notes from Pravachan #12 - August 10, 2008

इस से पहले हमने समजा कि बाह्य पदार्थो मे राग-द्वेश कि धारा के कारण इन्द्रिय के विषय मे काल्पनीक सुख-दुख भासित होता हे.

*प्रश्न: अगर बाह्य पदार्थो मे सुख-दुख नहि हे, वह सिर्फ़ काल्पनिक और सन्सकारजन्य हे तो लोगो को उसरुप मे प्रतित क्यो नहि होता?
-> मोहनिय कर्म से मिश्रित ग्यान विपरित ग्यान हे कि जो वस्तुओ के यथार्थ स्वरुप को जनाने नहि देता.
-> लौकिक उदाहरन: नशा पेदा करनेवाला द्रव्य पिने से बे-खबर आदमी का पदार्थो को थीक-थीक न जानना.
विशेष:
-> दर्शन मोहनीय कर्म प्रतिती मे शुन्यपना का कर्ता हे. जब कि चारित्र मोहनीय कर्म से विवेक शुन्य अर्थात उपयोग मे शुन्यपना होता हे.
-> उदाहरन: सम्यग्द्रश्टि रामचन्द्रजी के द्वारा लक्शमणजी का वियोग, हित-अहित कि प्रतिती होने पर भी उपयोग से वह शुन्य थे.

* सभी द्रव्यो मे पाये जानेवाला सामान्य गुण द्रव्य का साधारण धर्म हे. जब कि परस्पर मेल रहेने पर भी अन्य पदार्थो से जुदा जतलाने के लिये कारनभुत धर्म द्रव्य का स्व असाधारण धर्म या स्वभाव हे.
-> सुख आत्मा का / जीव का स्वभाव हे. सुख नामक गुण ५ प्रकार के जड द्रव्यो मे मोजुद नही हे. इस लिये सुख गुण का स्वाभाविक या वैभाविक परिणमन भी अजीव द्रव्यो मे नहि होगा और सिर्फ़ जीव के भीतर ही होगा.
-> यहा सुख गुण का वैभाविक परिणमन यानी राग-द्वेश युक्त काल्पनिक सुख-दुख.
-> परमार्थ से तो आकुलता को दुख और निराकुल अवस्था को सुख कहते हे.

*प्रश्न: सुख-दुख कि अनुभुति जीव के भीतर होती हे या शरीर के भीतर?
-> वेदन करने का गुण आत्मा का हे. इस लिये सुख-दुख का अनुभव शरीर मे नहि होगा, जीव मे होगा.
-> शरीर और जीव एक क्षेत्रावगाह बन्धरुप हे. शरीर को इश्ट या अनिश्ट का सन्योग होता रहता हे. शरीर कि इस अनुकुलता या प्रतिकुलता मे राग-द्वेश से प्रेरित होकर हर्श या विशाद का अनुभव करना, यह सुख-दुख का वेदन हे.
-> यहा शरीर तो निमित्त मात्र हे. उस मे सुहावनेपने या असुहावनेपने कि मान्यता से सुख-दुख लगता हे.
-> उदाहरन: मुनिराज के शरीर पर उपसर्ग चल रहा हो तब उन्हे अनिश्ट सन्योग कि जानकारी हे लेकिन ग्यान होने पर भी असुहावना नहि लगता तो दुख नही हे, समभाव रुप सुख हे.
-> स्वभाविक सुख का वेदन "पर-निरपेक्ष" हे. पर द्रव्य की किन्चित मात्र भी जरुरत नही हे.
-> यहा जीस तरह शरीर मे सुख-दुख नहि हे उसी तरह अन्य सभी पर द्रव्यो मे इश्ट-अनिश्ट की मान्यता भी तुटती हे.
-> पर द्रव्यो मे सुख-दुख का भ्रम ग्यानात्मक तरिके से तुटे तो प्रयोजन की सिध्धी नहि होगी, प्रतिति से भ्रम तुटे तो उसको सच्चा भेद-विग्यानी कहेन्गे.
-> बाह्य पदार्थो से सुख पाने का या उन से दुख दुर करने का पुरुषार्थ रुक जाना, राग-द्वेश मिटाने के लिये पुरुषार्थ बढना - इस कि कसोटी हे.

*प्रश्न: अमुर्त आत्मा का मुर्तिमान कर्मो के द्वारा अभिभव केसे?
-> कर्मो के साथ होने से आत्मा के गुणो की अभीव्यक्ति नही होती हे.
-> उदाहरन: केवलग्यान का प्रगट न होना -> साक्षात कारण अग्यान भाव का सदभाव होना हे, निमित्त अपेक्षा से केवलग्यानावरण का ऊदय कारण हे.
-> निमित्त पाकर आत्मा का स्वत: परीणमन होता हे. ऊपादान अपेक्षा से स्वत: परिणमित होने की शक्ति आत्मा मे हे.
विशेष:
-> सिध्ध जीव स्वरुप अपेक्षा से और निमित्त-नैमित्तिक अपेक्षा से अमुर्तिक हे.
-> सन्सारी जीव किन्चित अमुर्तिक हे. कर्म और कर्म से उत्पन्न भाव के साथ आत्मा का सम्बन्ध हे इस अपेक्षा से सन्सारी जीव मुर्तिक हे.

Saturday, August 9, 2008

Pravachan Notes - August 3rd, 2008

विकल्प दो प्रकार के होते है:

१) ज्ञानात्मक - में पर का नही हू, पर मेरा नही है, पर मेरा न था, मेरा न होगा, न रहेगा, में तो चैतन्य स्वरूपी ज्ञायक तत्त्व हूँ, ऐसे विकल्प को ज्ञानात्मक विकल्प कहते है. इन विकल्पों में राग तो है, लेकिन यह राग भक्ति, पूजा आदि करते समय जो राग होता है उससे अलग है.


२) कषायात्मक - मुझे ये चाहिए, मुझे यह छोड़ना है आदि जो कषाय युक्त विकल्प है.


यह कथन " नीज आत्मा को अरिहंत और सिद्ध के रूप में चिंतन किया जाय तो वह चरम शरीरी को मुक्ति प्रदान करते है ", इस को परम्परा कारण से कथन मानना, क्योंकि अगर चरम शरीरी नही है तो यह चिंतन तो देव गति का ही कारण बनता है और अगर शुक्ल ध्यान में जाएगा तो चिंतन का प्रश्न ही नही रहता.

  • धर्मं ध्यान में व्यक्त राग का सदभाव होता है और शुक्ल ध्यान में व्यक्त राग का आभाव और अव्यक्त राग का सदभाव होता है.

इसके बाद हमने नम्बर ६ के विशेषार्थ (पृष्ठ ७ का अन्तिम पारा) और अर्थ पढ़े.
इसमे यह बात आई हुई है की जो इन्द्रियजनित सुख या दुःख मालूम पड़ते है, वह वास्तव में सुख या दुःख नही है किन्तु वासना मात्र है.

  • वासना किसे कहते है?
    पर का निमित्त पाकर जो परिणाम होते है उसे वासना कहते है
जो ५ इन्द्रिय के विषय में सुहावने लगने रूप परिणाम है सो ही सुख है ऐसा प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में तो यह सुख काल्पनिक है क्योंकि यह विषय सुख रूप तब ही लगते है जब उनके प्रति राग भाव हो और वह ही विषय दुःख रूप लगते है जब उनके प्रति द्वेष भाव हो, और जब राग या द्वेष कोई भी भाव न हो, तो न तो वह सुख रूप लगते है और न तो दुःख रूप. ऐसे काल्पनिक सुख-दुःख उन्ही को होते है, जो की देह को परमार्थ से अपनी मानते है. ऐसे जीव बहिरात्मा होते है. ज्ञानीजन भी देह को अपनी मानते है, किन्तु उपचार से (अनुपचरित असदभुत व्यवहार नय से).

यह बात २ उदहारण द्वारा समजाइ गई है.

१) एक पति को कोई काल में अपनी पत्नी की बातें व चेष्टा अची लगती है, तब पत्नी के प्रति वह राग रूप परिणामित हुआ होता है. लेकिन कोई काल में किसी और विचारो से जब वह चींटी होता है, तब वही पत्नी की बातें उसे संताप देने वाली लगती है.

२) एक चिडिया जब अपने बच्चे के साथ रहती है, तब उसे दोपहार के सूरज की कड़ी धुप भी सुहावनी लगती है, लेकिन जब वह अपने बच्चे से बिछूड जाती है, तब रात्रि के चंद्रमा की शीतल किरणे भी उसे असहाय लगने लगती है.

इससे निष्कर्ष यही निकलता है की बाहर के कोई भी विषय न तो इष्ट है न तो अनिष्ट है, लेकिन अपनी राग कषाय से सुखदाय या राग से दुख्दय मानते है, लेकिन परमार्थ से न तो वह सुखदायक है न तो वह दुखदायक है. इसलिए यह सब इन्द्रियजनित सुख काल्पनिक है .

Sunday, July 27, 2008

Pravachan 10

प्रश्न: इस कथन का क्या तात्पर्य है" "इस आत्मा को अरहंत और सिद्ध के रूप में चिंतवन किया जाय"

उत्तर:

जीव =

  • सामान्य जीव: जिसमें चेतन शक्ति हो, सो सामान्य जीव है।
  • विशेष जीव: जिसमें उपयोग है। इसमें संसारी, मुक्त जीव आते हैं। इन्हे १२ प्रकार का उपयोग होता है: ८ ज्ञानोपयोग, ४ दर्शनोपयोग
    • शुद्धोपयोग = केवलज्ञानोपयोग, केवलदर्शनोपयोग
    • अशुद्धोपयोग = सु-मतिज्ञानोपयोग, सु-श्रुतज्ञानोपयोग, सु-अवधिज्ञानोपयोग,मनःपर्ययज्ञानोपयोग,कु-मतिज्ञानोपयोग, कु-श्रुतज्ञानोपयोग, कु-अवधिज्ञानोपयोग,चक्षुदर्शनोपयोग,अचक्षुदर्शनोपयोग,अवधिदर्शनोपयोग
    • दूसरी परिभाषा:
      • शुद्धोपयोग = शुद्ध भाव
      • अशुद्धोपयोग = अशुद्ध भाव
    • तीसरी परिभाषा
      • शुद्धोपयोग = शुद्ध की और होने वाले उपयोग को शुद्धोपयोग कहते हैं। (प्रवचनसार का सन्दर्भ)
      • अशुद्धोपयोग = अशुद्ध की और होने वाले उपयोग को अशुद्धोपयोग कहते हैं।

Notes: ३ भाव हैं, जो अध्यात्म ग्रन्थो मे लिये जाते हैं:

  1. अशुद्ध = शुभाशुभ भाव।
  2. शुद्ध = शुभाशुभ से रहित परिणाम
  3. सर्वविशुद्ध भाव = निरन्तर धारा प्रवाहित पारिणामिक भाव। इसमें चेतन शक्ति को लिया जाता है।

Sunday, June 29, 2008

Pravachan 6: Questions asked by Pandit Ji or revision

प्रश्न: मंगलाचरण क्या है?

उत्तर: मंगल की प्राप्ति के लिये जो आचरण विशेष किया जाता है, उसे मंगलाचरण कहते हैं।

प्रश्न: मंगलाचरण क्यों?

उत्तर:

  1. ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति
  2. पुण्य की प्राप्ति
  3. पाप का नाश: वक्ता का दानान्तराय, श्रोता का लाभान्तराय
  4. नास्तिकता का परिहार
  5. शिष्टाचार का पालन

प्रश्न: आस्तिकता क्या?

उत्तर: जो जैसा है, उसे वैसा स्वीकार करना, आस्तिकपने का लक्षण है।

प्रश्न: नास्तिकता क्या?

उत्तर: जो जैसा है, उसे वैसा नहीं स्वीकार करना, नास्तिकपने का लक्षण है।

प्रश्न: सिद्ध भगवान को मंगलाचरण मे नमस्कार क्यों किया है?

उत्तर: क्योंकि यह अध्यातम ग्रन्थ है। इसी प्रकार समयसार मे भी मंगलाचरण मे भी सिद्धो को नमस्कार किया गया है।

प्रश्न: इष्ट का अर्थ क्या है, और इस ग्रन्थ का नाम इष्टोपदेश क्यों लखा गया है?

उत्तर: जिससे सुख की प्राप्ति हो, दुख का नाश हो - वह प्रयोजन है, तथा जिससे प्रयोजन की सिद्धी हो वह इष्ट है।

प्रश्न: अगर मंगलाचरण ना करे तो कोई नुकसान है क्या?

उत्तर: लाभान्तराय का क्षयोपशम होता है। कृतज्ञतापने की अभिव्यक्ति के लिये।

प्रश्न: द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म क्या हैं?

उत्तर: द्रव्यकर्म = kaarmic particles

भावकर्म= kaarmic particles से आत्मा मे विकारी भाव

नोकर्म= (नो = किंचित)

) किंचित कर्म है- किंचित effect है आत्मा पर।

) ४ प्रकार के कर्म शरीर के बिना अपना फ़ल नहीं दिखा सकते, इसीलिये शरीर को नोकर्म कहा है।

) जो अपने विकारी भावो के प्रकट होने मे साधक-बाधक रूप बनते हैं, उन्हे भी किंचित कर्म कहते हैं।

Sunday, June 22, 2008

Ishtopdesh Ji - Lecture Notes from 06/22/08

Ishtopdesh Ji - Lecture Notes from 06/22/08:

* अच्छे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावो की सम्पूर्णता होनेपर जिव निश्चल चैतन्य स्वरुप हो जाता हे।
-> द्रष्टान्त: सम्यग दर्शन के लिए अरिहंत परमात्मा आदी सुद्रव्य, समोवशरण आदी सुक्षेत्र, सम्यग दर्शन का काल सुकाल और अपुर्वकरण, अनिवृतिकरण रूप अवस्था सुभाव ...
-> निश्चल का तात्पर्य: संसारी जिव का परिवर्तन होता रहता हे, सिद्ध अवस्था मे इस चलायमान अवस्था का नष्ट होना

* जीवात्मा के तीन भेद:
१> बहिरात्मा: आत्मा से भिन्न शरीर एवं पर पदार्थो मे अपनापन समजना
२> अंतरात्मा: शरीर और आत्मा के भेद को जानना
३> परमात्मा: नो कर्म, भावः कर्म, द्रव्य कर्म से रहित

प्रश्न: अंतराम्त्मा का ज्ञान हो तो सम्यग दर्शन होना जरुरी हे?
उत्तर: यहाँ पे अनुभव्रूप ग्यान की बात की हे तो चौथा गुन्स्थानक तो हे।

*विस्तार से ग्यान के प्रकार की चर्चा:
ग्यान के दो प्रकार हे:
१> जिनागम के आधाररूप ग्यान: इस से आत्मा के बारे मे जान सकते हे, आत्मा का ग्यान नही होता हे
२> अनुभवरूप ग्यान: प्रतीत सहती जानना यानी अनुभव्रूप ग्यान

अनुभव ग्यान के दो प्रकार हे:
१> लब्धिरूप ग्यान: अनुभव करने का सामर्थ्य होना
२> उपयोगरूप ग्यान: पुद्गल, धर्मं, अधर्म, आकाश, काल, इन पाँच द्रव्यों से उपयोग हटाकर निज आत्मा मे उपयोग स्थिर करने से आत्मिक ग्यान के अनुभवरूप अवस्था

द्रष्टान्त: अपने भीतर जो मनुश्यपना हे उसको जानना।
-> जब प्रवचन सुन रहे हो या दूसरी कोई क्रिया चल रही हो तब भी मनुश्यपने को जानने की शक्ती तो हे और उसकी प्रतीति होने पर भी वोह उपयोग्रूप नही हे, इसी तरह जिव के भीतर मे जिव हु एसी स्वानुभव ग्यान की प्रतीति तो पाई जाती हे लेकिन वर्तमान मे उपयोग द्वारा स्वात्मा का अनुभव नही हो रहा हे।

* शुद्धआत्मा का अनुभव:
-> आचार्य अम्रुचंद जी ने सुद्धात्मा अनुभव, स्वानुभव से भिन्न कर समजाया हे।
-> जिस काल मे मुनिराज के जीवन मे सुभ-अशुभ भावरूप विकारी भाव दूर हो जाते हे और सिर्फ़ सहज भाव ही रहता हे वोह सुद्धात्मानुभाव हे।
-> द्रष्टान्त: मनुष्यपने मे रोगी अवस्था से भिन्न निरोगी अवस्था को जानना
-> कई बार स्वानुभव और सुद्धात्मानुभाव को समान समजाया हे तो वहा अपेक्षा/विभक्षा से समजना बहुत जरुरी हे।
-> ६ गुनस्थानक से सातवे गुनस्थानक मे जानेवाले जिव को क्षायिक सम्यकत्व की उत्पत्ति हो शक्ती हे।

* व्रत के दो प्रकार हे:
१> प्रवृति रूप व्रत: शुभ प्रवृति का अंगीकार करना, वोह व्यव्हार ने हे, जिस से पुण्य का आश्रव होता हे।
२> निर्वृति रूप व्रत: विकारी भावो का अभाव्रूप निश्चय व्रत को जो कर्मो की निर्जरा का कारण बनता हे।

* प्रशन: द्रव्य निर्जरा किसे कहते हे?
-> उत्तर: कर्मो का एकदेश नष्ट होना।
-> यहाँ एकदेश यानी ४ प्रकर्म के कर्म बंध मे से प्रकृति बंध को छोड़कर बाकी के तिन (अनुभाग, स्थिति, प्रदेश) बंध का हिन्/क्षीण होना।
-> प्रकृति बंध के सहित बाकी तिन बंध का आभाव तो क्षय हे।


Extra:
* भगवन - दो प्रकार से अर्थ हे:
-> भग यानी ग्यान, भगवान् यानी ग्यान्वान, केवलज्ञान धारी अरिहंत, सिद्ध
-> भगवान् की जो पूजने योग्य हे यानी पञ्च परमेष्टी

* वत्स: बच्चा, बालक, अग्यानी

Sunday, June 15, 2008

Pravachan 4

2nd Stanza of Ishtopdesh Ji: (Page 2-3 from the scripture)

दो प्रकार के कारण हैं:

उत्पादक कारण = कार्य की उत्पादक सामग्री

सूचक कारण = जो कार्य होने की सूचना दे। जैसे धूंआ, अग्नि के लिये सूचक कारण है।

उत्पादक कारण के दो भेद हैं:

. उपादान कारण = जो कार्य रूप परिणमित होता है अथवा जिसमें कार्य होता है।

. निमित्त कारण = जो कार्य रूप परिणमित नहीं होता, मगर कार्य में सहयोगी होता है

उदाहरण: सम्यगदर्शन कार्य का उपादान कारण जीव स्वयं है, तथा निमित्त कारण देव, शास्त्र, गुरु, दर्शन मोह का क्षयोपक्षम आदि हैं।

उपादान कारण भी दो प्रकार के है:

.त्रिकाली उपादान कारण: जिसमे कार्य रूप परिणमित होने की हमेशा शक्ति पायी जाती है।

.क्षणिक उपादान कारण: कार्य होने लिये से पहले जो कारण है। जैसे मोक्ष के लिये व्यव्हार रत्नत्रय, और निश्चय रत्नत्रय क्षणिक उपादान कारण हैं। क्षणिक उपादान कारण भी दो प्रकार का होता है:

... समर्थ क्षणिक उपादान कारण: जिसके होने पर कार्य हो ही हो, और जिसके बिना कार्य ना हो। जैसे सम्यगदर्शन के लिये करण लब्धि।

... असमर्थ क्षणिक उपादान कारण: जिसके होने पर कार्य हो भी सकता है, नहीं भी। मगर इसके बिना कार्य नहीं होगा। जैसे सम्यगदर्शन के लिये चार लब्धियां असमर्थ उपादान कारण है।

निमित्त कारण भी दो प्रकार के है:

.. समर्थ निमित्त कारण: जिसके होने पर कार्य हो ही हो, और जिसके बिना कार्य ना हो। जैसे सम्यगदर्शन के लिये दर्शन मोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपक्षम आदि समर्थ निमित्त कारण हैं।

.. असमर्थ निमित्त कारण: जिसके होने पर कार्य हो भी सकता है, नहीं भी। मगर इसके बिना कार्य नहीं होगा। जैसे सम्यगदर्शन के लिये देव, शास्त्र, गुरु आदि असमर्थ निमित्त कारण है।

प्रश्न: प्रद्युम्न Uncle: एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं कर्ता - इसका क्या मतलब है?

उत्तर:

कर्ता की परिभाषा: यः परिणमति सः कर्ता। जो परिणमन करता है, वही कर्ता है। जो परिणमन वह कार्य है।

जैसे: मैं शुभ भाव कर रहा हुं और उसमे पण्डित जी सहयोगी हैं। अब क्या पण्डित जी मेरे शुभ भाव का कर्ता हैं? नहीं, क्योंकि - ’जो परिणमन करता है, वही कर्ता है’- इसलिये, पण्डित जी कर्ता नहीं है, निमित्त है। शुभ भाव का कर्ता तो मैं ही हूं।

अब कर्ता का प्रयोग भी दो तरीके से होता है:

. जैसा की उपर बताया है।

. निमित्त को भी उपचार से कर्ता कह दिया जाता है। जैसे: पण्डित जी मेरे शुभ भाव के कर्ता हैं। मगर ये उपचार कथन है, जो लोकव्यवहार मे बहुलता से प्रयोग किया जाता है।

अब देखे: देव, शास्त्र, निमित्त क्या मेरे कर्ता है? - नहीं वे निमित्त हैं।

Possible misinterpretation: "एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं कर्ता" - इसका गलत अर्थ कभी भूल से ऐसा कर लिया जाता है, कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का सहयोगी नहीं होता।

Wednesday, June 4, 2008

Pravachan 3

Here is the audio link for Pravachan 3.

Stanza 1 was completed with the meaning.

Thursday, May 29, 2008

Pravachan 2

18 May, 2008: Recording: Click here

Talked about the meaning of Mangalacharan.

Agenda for next swadhyaya: What is Parmatma, and why we bowed to Parmatma in Mangalacharan

Wednesday, May 21, 2008

Lecture 1: Mangalacharan

Recorded lecture is at : http://cid-2ab80bd7158552ef.skydrive.live.com/browse.aspx/Ishtopdesh


मंगलाचरण करने के कारण:

  1. ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति
  2. पुण्य की प्राप्ति
  3. पाप का नाश: वक्ता का दानान्तराय, श्रोता का लाभान्तराय
  4. नास्तिकता का परिहार
परमात्मा:

१. कारण परमात्मा: हर जीव मे जो परमात्मा होने की सामर्थ्य है, उसे कारण परमात्मा कहते हैं। इसके दो भेद हैं:

_ १.१ त्रिकाली कारण परमात्मा: निगोद से सिद्ध परमात्मा तक सबमे परमात्मा होने की शक्ति है। ऐसी शक्ति के धारक जीवो को त्रिकाली कारण परमात्मा कहते हैं।

_ १.२ क्षणिक कारण परमात्मा: कार्य परमात्मा बनने के लिये जो निश्चय रत्नत्रय रूप शुद्धोपयोग अवस्था चाहिये, उससे परिणित आत्मा को क्षणिक कारण परमात्मा कहते हैं।
आगमभाषा में, द्वितिय शुक्लध्यान के धारक जीवो को क्षणिक कारण परमात्मा के नाम से जाना जाता है।

२. कार्य परमात्मा: अरिहंत, सिद्ध प्रभु

Tuesday, May 20, 2008

Definitions/Glossary

This section contains all the definitions/lakshans used in the scripture:

परमात्मा:

१. कारण परमात्मा: हर जीव मे जो परमात्मा होने की सामर्थ्य है, उसे कारण परमात्मा कहते हैं। इसके दो भेद हैं:

_ १.१ त्रिकाली कारण परमात्मा: निगोद से सिद्ध परमात्मा तक सबमे परमात्मा होने की शक्ति है। ऐसी शक्ति के धारक जीवो को त्रिकाली कारण परमात्मा कहते हैं।

_ १.२ क्षणिक कारण परमात्मा: कार्य परमात्मा बनने के लिये जो निश्चय रत्नत्रय रूप शुद्धोपयोग अवस्था चाहिये, उससे परिणित आत्मा को क्षणिक कारण परमात्मा कहते हैं।
आगमभाषा में, द्वितिय शुक्लध्यान के धारक जीवो को क्षणिक कारण परमात्मा के नाम से जाना जाता है।

२. कार्य परमात्मा: अरिहंत, सिद्ध प्रभु

Recorded Pravachans, Link to scripture

Monday, May 19, 2008

Introduction

This blog will contain summaries of Pravachan by pandit Shailesh Ji from Sonagiri Ji, Madhya Pradesh.

Here are the details on Pravachan:

Orator: Pt Shailesh Ji, Sonagiri, Madhya Pradesh.

Time: Every Sunday 4:45 pm to 5:45 pm Pacific Time


How to dial-in:
712-429-0690 and the passcode is 551395#

Language:
Hindi

Scripture:
Ishtopdesh
( Scripture link: Will be providing later )

About the Scripture: Please read: http://www.jainsamaj.org/literature/bookrev10-211202.htm