Sunday, June 29, 2008

Pravachan 6: Questions asked by Pandit Ji or revision

प्रश्न: मंगलाचरण क्या है?

उत्तर: मंगल की प्राप्ति के लिये जो आचरण विशेष किया जाता है, उसे मंगलाचरण कहते हैं।

प्रश्न: मंगलाचरण क्यों?

उत्तर:

  1. ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति
  2. पुण्य की प्राप्ति
  3. पाप का नाश: वक्ता का दानान्तराय, श्रोता का लाभान्तराय
  4. नास्तिकता का परिहार
  5. शिष्टाचार का पालन

प्रश्न: आस्तिकता क्या?

उत्तर: जो जैसा है, उसे वैसा स्वीकार करना, आस्तिकपने का लक्षण है।

प्रश्न: नास्तिकता क्या?

उत्तर: जो जैसा है, उसे वैसा नहीं स्वीकार करना, नास्तिकपने का लक्षण है।

प्रश्न: सिद्ध भगवान को मंगलाचरण मे नमस्कार क्यों किया है?

उत्तर: क्योंकि यह अध्यातम ग्रन्थ है। इसी प्रकार समयसार मे भी मंगलाचरण मे भी सिद्धो को नमस्कार किया गया है।

प्रश्न: इष्ट का अर्थ क्या है, और इस ग्रन्थ का नाम इष्टोपदेश क्यों लखा गया है?

उत्तर: जिससे सुख की प्राप्ति हो, दुख का नाश हो - वह प्रयोजन है, तथा जिससे प्रयोजन की सिद्धी हो वह इष्ट है।

प्रश्न: अगर मंगलाचरण ना करे तो कोई नुकसान है क्या?

उत्तर: लाभान्तराय का क्षयोपशम होता है। कृतज्ञतापने की अभिव्यक्ति के लिये।

प्रश्न: द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म क्या हैं?

उत्तर: द्रव्यकर्म = kaarmic particles

भावकर्म= kaarmic particles से आत्मा मे विकारी भाव

नोकर्म= (नो = किंचित)

) किंचित कर्म है- किंचित effect है आत्मा पर।

) ४ प्रकार के कर्म शरीर के बिना अपना फ़ल नहीं दिखा सकते, इसीलिये शरीर को नोकर्म कहा है।

) जो अपने विकारी भावो के प्रकट होने मे साधक-बाधक रूप बनते हैं, उन्हे भी किंचित कर्म कहते हैं।

Sunday, June 22, 2008

Ishtopdesh Ji - Lecture Notes from 06/22/08

Ishtopdesh Ji - Lecture Notes from 06/22/08:

* अच्छे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावो की सम्पूर्णता होनेपर जिव निश्चल चैतन्य स्वरुप हो जाता हे।
-> द्रष्टान्त: सम्यग दर्शन के लिए अरिहंत परमात्मा आदी सुद्रव्य, समोवशरण आदी सुक्षेत्र, सम्यग दर्शन का काल सुकाल और अपुर्वकरण, अनिवृतिकरण रूप अवस्था सुभाव ...
-> निश्चल का तात्पर्य: संसारी जिव का परिवर्तन होता रहता हे, सिद्ध अवस्था मे इस चलायमान अवस्था का नष्ट होना

* जीवात्मा के तीन भेद:
१> बहिरात्मा: आत्मा से भिन्न शरीर एवं पर पदार्थो मे अपनापन समजना
२> अंतरात्मा: शरीर और आत्मा के भेद को जानना
३> परमात्मा: नो कर्म, भावः कर्म, द्रव्य कर्म से रहित

प्रश्न: अंतराम्त्मा का ज्ञान हो तो सम्यग दर्शन होना जरुरी हे?
उत्तर: यहाँ पे अनुभव्रूप ग्यान की बात की हे तो चौथा गुन्स्थानक तो हे।

*विस्तार से ग्यान के प्रकार की चर्चा:
ग्यान के दो प्रकार हे:
१> जिनागम के आधाररूप ग्यान: इस से आत्मा के बारे मे जान सकते हे, आत्मा का ग्यान नही होता हे
२> अनुभवरूप ग्यान: प्रतीत सहती जानना यानी अनुभव्रूप ग्यान

अनुभव ग्यान के दो प्रकार हे:
१> लब्धिरूप ग्यान: अनुभव करने का सामर्थ्य होना
२> उपयोगरूप ग्यान: पुद्गल, धर्मं, अधर्म, आकाश, काल, इन पाँच द्रव्यों से उपयोग हटाकर निज आत्मा मे उपयोग स्थिर करने से आत्मिक ग्यान के अनुभवरूप अवस्था

द्रष्टान्त: अपने भीतर जो मनुश्यपना हे उसको जानना।
-> जब प्रवचन सुन रहे हो या दूसरी कोई क्रिया चल रही हो तब भी मनुश्यपने को जानने की शक्ती तो हे और उसकी प्रतीति होने पर भी वोह उपयोग्रूप नही हे, इसी तरह जिव के भीतर मे जिव हु एसी स्वानुभव ग्यान की प्रतीति तो पाई जाती हे लेकिन वर्तमान मे उपयोग द्वारा स्वात्मा का अनुभव नही हो रहा हे।

* शुद्धआत्मा का अनुभव:
-> आचार्य अम्रुचंद जी ने सुद्धात्मा अनुभव, स्वानुभव से भिन्न कर समजाया हे।
-> जिस काल मे मुनिराज के जीवन मे सुभ-अशुभ भावरूप विकारी भाव दूर हो जाते हे और सिर्फ़ सहज भाव ही रहता हे वोह सुद्धात्मानुभाव हे।
-> द्रष्टान्त: मनुष्यपने मे रोगी अवस्था से भिन्न निरोगी अवस्था को जानना
-> कई बार स्वानुभव और सुद्धात्मानुभाव को समान समजाया हे तो वहा अपेक्षा/विभक्षा से समजना बहुत जरुरी हे।
-> ६ गुनस्थानक से सातवे गुनस्थानक मे जानेवाले जिव को क्षायिक सम्यकत्व की उत्पत्ति हो शक्ती हे।

* व्रत के दो प्रकार हे:
१> प्रवृति रूप व्रत: शुभ प्रवृति का अंगीकार करना, वोह व्यव्हार ने हे, जिस से पुण्य का आश्रव होता हे।
२> निर्वृति रूप व्रत: विकारी भावो का अभाव्रूप निश्चय व्रत को जो कर्मो की निर्जरा का कारण बनता हे।

* प्रशन: द्रव्य निर्जरा किसे कहते हे?
-> उत्तर: कर्मो का एकदेश नष्ट होना।
-> यहाँ एकदेश यानी ४ प्रकर्म के कर्म बंध मे से प्रकृति बंध को छोड़कर बाकी के तिन (अनुभाग, स्थिति, प्रदेश) बंध का हिन्/क्षीण होना।
-> प्रकृति बंध के सहित बाकी तिन बंध का आभाव तो क्षय हे।


Extra:
* भगवन - दो प्रकार से अर्थ हे:
-> भग यानी ग्यान, भगवान् यानी ग्यान्वान, केवलज्ञान धारी अरिहंत, सिद्ध
-> भगवान् की जो पूजने योग्य हे यानी पञ्च परमेष्टी

* वत्स: बच्चा, बालक, अग्यानी

Sunday, June 15, 2008

Pravachan 4

2nd Stanza of Ishtopdesh Ji: (Page 2-3 from the scripture)

दो प्रकार के कारण हैं:

उत्पादक कारण = कार्य की उत्पादक सामग्री

सूचक कारण = जो कार्य होने की सूचना दे। जैसे धूंआ, अग्नि के लिये सूचक कारण है।

उत्पादक कारण के दो भेद हैं:

. उपादान कारण = जो कार्य रूप परिणमित होता है अथवा जिसमें कार्य होता है।

. निमित्त कारण = जो कार्य रूप परिणमित नहीं होता, मगर कार्य में सहयोगी होता है

उदाहरण: सम्यगदर्शन कार्य का उपादान कारण जीव स्वयं है, तथा निमित्त कारण देव, शास्त्र, गुरु, दर्शन मोह का क्षयोपक्षम आदि हैं।

उपादान कारण भी दो प्रकार के है:

.त्रिकाली उपादान कारण: जिसमे कार्य रूप परिणमित होने की हमेशा शक्ति पायी जाती है।

.क्षणिक उपादान कारण: कार्य होने लिये से पहले जो कारण है। जैसे मोक्ष के लिये व्यव्हार रत्नत्रय, और निश्चय रत्नत्रय क्षणिक उपादान कारण हैं। क्षणिक उपादान कारण भी दो प्रकार का होता है:

... समर्थ क्षणिक उपादान कारण: जिसके होने पर कार्य हो ही हो, और जिसके बिना कार्य ना हो। जैसे सम्यगदर्शन के लिये करण लब्धि।

... असमर्थ क्षणिक उपादान कारण: जिसके होने पर कार्य हो भी सकता है, नहीं भी। मगर इसके बिना कार्य नहीं होगा। जैसे सम्यगदर्शन के लिये चार लब्धियां असमर्थ उपादान कारण है।

निमित्त कारण भी दो प्रकार के है:

.. समर्थ निमित्त कारण: जिसके होने पर कार्य हो ही हो, और जिसके बिना कार्य ना हो। जैसे सम्यगदर्शन के लिये दर्शन मोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपक्षम आदि समर्थ निमित्त कारण हैं।

.. असमर्थ निमित्त कारण: जिसके होने पर कार्य हो भी सकता है, नहीं भी। मगर इसके बिना कार्य नहीं होगा। जैसे सम्यगदर्शन के लिये देव, शास्त्र, गुरु आदि असमर्थ निमित्त कारण है।

प्रश्न: प्रद्युम्न Uncle: एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं कर्ता - इसका क्या मतलब है?

उत्तर:

कर्ता की परिभाषा: यः परिणमति सः कर्ता। जो परिणमन करता है, वही कर्ता है। जो परिणमन वह कार्य है।

जैसे: मैं शुभ भाव कर रहा हुं और उसमे पण्डित जी सहयोगी हैं। अब क्या पण्डित जी मेरे शुभ भाव का कर्ता हैं? नहीं, क्योंकि - ’जो परिणमन करता है, वही कर्ता है’- इसलिये, पण्डित जी कर्ता नहीं है, निमित्त है। शुभ भाव का कर्ता तो मैं ही हूं।

अब कर्ता का प्रयोग भी दो तरीके से होता है:

. जैसा की उपर बताया है।

. निमित्त को भी उपचार से कर्ता कह दिया जाता है। जैसे: पण्डित जी मेरे शुभ भाव के कर्ता हैं। मगर ये उपचार कथन है, जो लोकव्यवहार मे बहुलता से प्रयोग किया जाता है।

अब देखे: देव, शास्त्र, निमित्त क्या मेरे कर्ता है? - नहीं वे निमित्त हैं।

Possible misinterpretation: "एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं कर्ता" - इसका गलत अर्थ कभी भूल से ऐसा कर लिया जाता है, कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का सहयोगी नहीं होता।

Wednesday, June 4, 2008

Pravachan 3

Here is the audio link for Pravachan 3.

Stanza 1 was completed with the meaning.