Saturday, August 16, 2008

Ishtopdesh Ji - Notes from Pravachan 12 - August 10, 2008

Ishtopdesh Ji - Notes from Pravachan #12 - August 10, 2008

इस से पहले हमने समजा कि बाह्य पदार्थो मे राग-द्वेश कि धारा के कारण इन्द्रिय के विषय मे काल्पनीक सुख-दुख भासित होता हे.

*प्रश्न: अगर बाह्य पदार्थो मे सुख-दुख नहि हे, वह सिर्फ़ काल्पनिक और सन्सकारजन्य हे तो लोगो को उसरुप मे प्रतित क्यो नहि होता?
-> मोहनिय कर्म से मिश्रित ग्यान विपरित ग्यान हे कि जो वस्तुओ के यथार्थ स्वरुप को जनाने नहि देता.
-> लौकिक उदाहरन: नशा पेदा करनेवाला द्रव्य पिने से बे-खबर आदमी का पदार्थो को थीक-थीक न जानना.
विशेष:
-> दर्शन मोहनीय कर्म प्रतिती मे शुन्यपना का कर्ता हे. जब कि चारित्र मोहनीय कर्म से विवेक शुन्य अर्थात उपयोग मे शुन्यपना होता हे.
-> उदाहरन: सम्यग्द्रश्टि रामचन्द्रजी के द्वारा लक्शमणजी का वियोग, हित-अहित कि प्रतिती होने पर भी उपयोग से वह शुन्य थे.

* सभी द्रव्यो मे पाये जानेवाला सामान्य गुण द्रव्य का साधारण धर्म हे. जब कि परस्पर मेल रहेने पर भी अन्य पदार्थो से जुदा जतलाने के लिये कारनभुत धर्म द्रव्य का स्व असाधारण धर्म या स्वभाव हे.
-> सुख आत्मा का / जीव का स्वभाव हे. सुख नामक गुण ५ प्रकार के जड द्रव्यो मे मोजुद नही हे. इस लिये सुख गुण का स्वाभाविक या वैभाविक परिणमन भी अजीव द्रव्यो मे नहि होगा और सिर्फ़ जीव के भीतर ही होगा.
-> यहा सुख गुण का वैभाविक परिणमन यानी राग-द्वेश युक्त काल्पनिक सुख-दुख.
-> परमार्थ से तो आकुलता को दुख और निराकुल अवस्था को सुख कहते हे.

*प्रश्न: सुख-दुख कि अनुभुति जीव के भीतर होती हे या शरीर के भीतर?
-> वेदन करने का गुण आत्मा का हे. इस लिये सुख-दुख का अनुभव शरीर मे नहि होगा, जीव मे होगा.
-> शरीर और जीव एक क्षेत्रावगाह बन्धरुप हे. शरीर को इश्ट या अनिश्ट का सन्योग होता रहता हे. शरीर कि इस अनुकुलता या प्रतिकुलता मे राग-द्वेश से प्रेरित होकर हर्श या विशाद का अनुभव करना, यह सुख-दुख का वेदन हे.
-> यहा शरीर तो निमित्त मात्र हे. उस मे सुहावनेपने या असुहावनेपने कि मान्यता से सुख-दुख लगता हे.
-> उदाहरन: मुनिराज के शरीर पर उपसर्ग चल रहा हो तब उन्हे अनिश्ट सन्योग कि जानकारी हे लेकिन ग्यान होने पर भी असुहावना नहि लगता तो दुख नही हे, समभाव रुप सुख हे.
-> स्वभाविक सुख का वेदन "पर-निरपेक्ष" हे. पर द्रव्य की किन्चित मात्र भी जरुरत नही हे.
-> यहा जीस तरह शरीर मे सुख-दुख नहि हे उसी तरह अन्य सभी पर द्रव्यो मे इश्ट-अनिश्ट की मान्यता भी तुटती हे.
-> पर द्रव्यो मे सुख-दुख का भ्रम ग्यानात्मक तरिके से तुटे तो प्रयोजन की सिध्धी नहि होगी, प्रतिति से भ्रम तुटे तो उसको सच्चा भेद-विग्यानी कहेन्गे.
-> बाह्य पदार्थो से सुख पाने का या उन से दुख दुर करने का पुरुषार्थ रुक जाना, राग-द्वेश मिटाने के लिये पुरुषार्थ बढना - इस कि कसोटी हे.

*प्रश्न: अमुर्त आत्मा का मुर्तिमान कर्मो के द्वारा अभिभव केसे?
-> कर्मो के साथ होने से आत्मा के गुणो की अभीव्यक्ति नही होती हे.
-> उदाहरन: केवलग्यान का प्रगट न होना -> साक्षात कारण अग्यान भाव का सदभाव होना हे, निमित्त अपेक्षा से केवलग्यानावरण का ऊदय कारण हे.
-> निमित्त पाकर आत्मा का स्वत: परीणमन होता हे. ऊपादान अपेक्षा से स्वत: परिणमित होने की शक्ति आत्मा मे हे.
विशेष:
-> सिध्ध जीव स्वरुप अपेक्षा से और निमित्त-नैमित्तिक अपेक्षा से अमुर्तिक हे.
-> सन्सारी जीव किन्चित अमुर्तिक हे. कर्म और कर्म से उत्पन्न भाव के साथ आत्मा का सम्बन्ध हे इस अपेक्षा से सन्सारी जीव मुर्तिक हे.

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