Ishtopdesh Ji - Lecture Notes from 06/22/08:
* अच्छे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावो की सम्पूर्णता होनेपर जिव निश्चल चैतन्य स्वरुप हो जाता हे।
-> द्रष्टान्त: सम्यग दर्शन के लिए अरिहंत परमात्मा आदी सुद्रव्य, समोवशरण आदी सुक्षेत्र, सम्यग दर्शन का काल सुकाल और अपुर्वकरण, अनिवृतिकरण रूप अवस्था सुभाव ...
-> निश्चल का तात्पर्य: संसारी जिव का परिवर्तन होता रहता हे, सिद्ध अवस्था मे इस चलायमान अवस्था का नष्ट होना
* जीवात्मा के तीन भेद:
१> बहिरात्मा: आत्मा से भिन्न शरीर एवं पर पदार्थो मे अपनापन समजना
२> अंतरात्मा: शरीर और आत्मा के भेद को जानना
३> परमात्मा: नो कर्म, भावः कर्म, द्रव्य कर्म से रहित
प्रश्न: अंतराम्त्मा का ज्ञान हो तो सम्यग दर्शन होना जरुरी हे?
उत्तर: यहाँ पे अनुभव्रूप ग्यान की बात की हे तो चौथा गुन्स्थानक तो हे।
*विस्तार से ग्यान के प्रकार की चर्चा:
ग्यान के दो प्रकार हे:
१> जिनागम के आधाररूप ग्यान: इस से आत्मा के बारे मे जान सकते हे, आत्मा का ग्यान नही होता हे
२> अनुभवरूप ग्यान: प्रतीत सहती जानना यानी अनुभव्रूप ग्यान
अनुभव ग्यान के दो प्रकार हे:
१> लब्धिरूप ग्यान: अनुभव करने का सामर्थ्य होना
२> उपयोगरूप ग्यान: पुद्गल, धर्मं, अधर्म, आकाश, काल, इन पाँच द्रव्यों से उपयोग हटाकर निज आत्मा मे उपयोग स्थिर करने से आत्मिक ग्यान के अनुभवरूप अवस्था
द्रष्टान्त: अपने भीतर जो मनुश्यपना हे उसको जानना।
-> जब प्रवचन सुन रहे हो या दूसरी कोई क्रिया चल रही हो तब भी मनुश्यपने को जानने की शक्ती तो हे और उसकी प्रतीति होने पर भी वोह उपयोग्रूप नही हे, इसी तरह जिव के भीतर मे जिव हु एसी स्वानुभव ग्यान की प्रतीति तो पाई जाती हे लेकिन वर्तमान मे उपयोग द्वारा स्वात्मा का अनुभव नही हो रहा हे।
* शुद्धआत्मा का अनुभव:
-> आचार्य अम्रुचंद जी ने सुद्धात्मा अनुभव, स्वानुभव से भिन्न कर समजाया हे।
-> जिस काल मे मुनिराज के जीवन मे सुभ-अशुभ भावरूप विकारी भाव दूर हो जाते हे और सिर्फ़ सहज भाव ही रहता हे वोह सुद्धात्मानुभाव हे।
-> द्रष्टान्त: मनुष्यपने मे रोगी अवस्था से भिन्न निरोगी अवस्था को जानना
-> कई बार स्वानुभव और सुद्धात्मानुभाव को समान समजाया हे तो वहा अपेक्षा/विभक्षा से समजना बहुत जरुरी हे।
-> ६ गुनस्थानक से सातवे गुनस्थानक मे जानेवाले जिव को क्षायिक सम्यकत्व की उत्पत्ति हो शक्ती हे।
* व्रत के दो प्रकार हे:
१> प्रवृति रूप व्रत: शुभ प्रवृति का अंगीकार करना, वोह व्यव्हार ने हे, जिस से पुण्य का आश्रव होता हे।
२> निर्वृति रूप व्रत: विकारी भावो का अभाव्रूप निश्चय व्रत को जो कर्मो की निर्जरा का कारण बनता हे।
* प्रशन: द्रव्य निर्जरा किसे कहते हे?
-> उत्तर: कर्मो का एकदेश नष्ट होना।
-> यहाँ एकदेश यानी ४ प्रकर्म के कर्म बंध मे से प्रकृति बंध को छोड़कर बाकी के तिन (अनुभाग, स्थिति, प्रदेश) बंध का हिन्/क्षीण होना।
-> प्रकृति बंध के सहित बाकी तिन बंध का आभाव तो क्षय हे।
Extra:
* भगवन - दो प्रकार से अर्थ हे:
-> भग यानी ग्यान, भगवान् यानी ग्यान्वान, केवलज्ञान धारी अरिहंत, सिद्ध
-> भगवान् की जो पूजने योग्य हे यानी पञ्च परमेष्टी
* वत्स: बच्चा, बालक, अग्यानी
Sunday, June 22, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment